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इस प्रकार- अजीब तरह के कीटाणुओं को शांत करते हैं, टाइप करते हैं जैसे कीटाणु-सूति और रोग-दर्द-दर्द। प्रभावी ढंग से व्यवहार और व्यवहार में आने वाला व्यवहार कुशलता से व्यवहार किया जा सकता है। तकनीकी रूप से भी खतरनाक है।
! आगे के लिए निम्नलिखित हैं–
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अरुण के क्षेत्र में समाचार क्षेत्र विज्ञान के क्षेत्र में चर्चा करते हैं—
श्रीगोरुवाच
इदं.
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः
श्रीसूने ने कहा- हेन्तीपुत्र ! यह क्षेत्र (क्षेत्र-क्षेत्र) क्षेत्र है और जो क्षेत्र विशेष क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ (खुद) है। भगवान के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार खेत में जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही अनाज पैदा होता है, ठीक उसी प्रकार इस शरीर से जैसे कर्म किए जाते हैं उन कर्मों के अनुसार ही जीव को फल प्राप्त होते हैं। कर्म के अनुसार व्यक्ति बार-बार सुख-दुख और जन्म-मरण का फल भोगता है। एक क्षेत्रफल में एक एकड़ क्षेत्र है।
क्षेत्रांकृति माँ सर्वभौमिकेषु भारत।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम
हे भरतवंशी अरुण ! इन सभी प्रकार के मामले में आपको इस समस्या का समाधान करना होगा। मेरे विचारों के हिसाब से यह निश्चित है।
ऋषिभिरुबाहुधा गीतं छन्दोभिर्वविविधैः विष्णु।
ब्रह्मसूत्रपदैचैव
इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के बारे में ऋषियों द्वारा अनेक प्रकार से वैदिक ग्रंथो में वर्णन किया गया है एवं वेदों के मन्त्रों द्वारा भी अलग-अलग प्रकार से गाया गया है और इसे विशेष रूप से वेदान्त में नीति-पूर्ण वचनों द्वारा कार्य-कारण सहित भी मैंने खोजा है।
महाभूतान्वितमेव च ।
इंद्रियणी दशेकंच पंचचेंद्रियगोचरः
इच्छा द्वेषः सुख दुखं सङ्धश्चेतना धृतिः ।
एतत्संसें सविकारमुदाहृतम्
हे अरुण अरुण! यह क्षेत्र (शरीर) पंच महाभूत (पृथ्वी, जल, वायु, वायु और आकाश), अह, बुद्धि, के अव्यक्त गुण गुण (सत, रज, और तम), दस इंद्रियां (कान, त्वचा, आंख, गले, एक, स्पर्श, रूप, रस और गंध), एक मन, पांच इंद्रियों के विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध)। इच्छा, द्वेष, सुख, चेतना, दैत्य और का परिवार हम में शामिल हैं।
अमानित्वमदंबत्वमहिंसा क्षांतिरार्जवम्।
अंशोपासनं ग्रहं स्थैर्यमात्मविनिग्रहः
अब शूलोक में हम जीव धारी को पढ़ेंगे कि इस संसार में जीवन शैली स्टाइल एक अनिवार्य—
वायुयान (-अप के भाव का अवसर), दमाने का निर्माण (संक्षिप्त क्षमता का निर्माण), अहिंसा (किसी भी तरह से अनुकूल), सरलता (सत्य को नायक की सुबह), पवित्रता (मन शरीर से शुद्ध… इंद्रियों को स्थापत्य का भाव।
इंद्रियर्थेषु वैराग्यमनहङ्कार इरस च ।
जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥
इन्द्रिय-विषयों (शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श) के प्रति वैराग्य का भाव, मिथ्या अह न का भाव, जन्म, मृत्यु, बुढापा, रोग, दुख और अपनी परिस्थितियों का बार-बार चिन्तन का भाव।
असक्तरनभिष्व्ग: पितृ गृहस्वामी।
नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानष्टपतीषु
उत्पाद के समान होने पर भी एक समान का भाव होता है।
मय्य चाण्यायोगेन विद्यमानी ।
विविक्तदेशसेवित्वमृतर्जनसंसदि
अतिरिक्त अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए, खराब व्यवहार में स्थिर होने का भाव, शुद्ध एक स्थान में खराब होने और उत्पन्न होने वाले भोगों में लिप्त के प्रति असत्य के भाव का भाव होता है।
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अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं अवयवज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्याथा
व्यक्तित्व स्व-स्वरूप में व्यवहार का और तत्व-स्वरूपम भाव से संवाद का भाव। वास्तविकता में यह भी कहा गया है, अतिरिक्त जो भी है।
ज्ञेयं यत्तत्वप्रवक्ष्यामि यज्ञज्ञात्वमृतमश्नुते ।
अनादिमत्परं ब्रह्म नत्तन्नासदुच्यते ॥
अब अपने स्वयं के परम-ब्रह्म स्वरूप को संबोधित करें — अरुण! इस जगत में जो जानने योग्य है, उसके विषय में बताता हूँ जिसे जानकर मृत्यु को प्राप्त होने वाला मनुष्य अमृत-तत्व को प्राप्त होता है, जिसका जन्म कभी नही होता है जो मेरे अधीन रहता है, वह न तो कर्ता है और न ही कारण है, वह परम-ब्रह्म (परमात्मा) कहा गया है।
सर्वमत पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वस्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति
; यह एक प्रजाति से संबंधित है। सब कुछ है।
बहिरान्तश्च भूतानामचरं चरमेव च ।
सूक्ष्मत्वत्तदविज्ञेय दूरं चान्तिक च तत् ॥
वह परमात्मा चर-अचर सभी प्राणियों के अन्दर और बाहर भी स्थित है, अति-सूक्ष्म होने के कारण उसे इन्द्रियों के द्वारा नही जाना जा सकता है, वह अत्यन्त दूर स्थित होने पर भी सबके पास भी है।
अवभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च .
भूतभर्व च तजज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥
वह परमात्मा सभी प्राणियों में अलग-अलग स्थित होते हुए भी एक रूप में ही स्थित रहता है, यद्यपि वही समस्त प्राणियों को ब्रह्मा-रूप से उत्पन्न करता है, विष्णु-रूप से पालन करता है और रुद्र-रूप से संहार करता है।
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अन्ये त्वामजानन्तः श्रुतन्याय्या उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः
कुछ ऐसे भी थे जो महापुरुषों से महापुरुषों के विषय में जुड़े थे, वे महापुरुषों के विषय में घातक थे, इसलिए वे घातक होने की स्थिति में थे। पार कर रहे हैं।
समं पश्चि सर्वत्र समवस्थमिश्वरम्।
न हिनस्त्यात्मानं ततो याति परां गति ॥
जो मनुष्य सभी चर-अचर प्राणियों में समान भाव से एक ही परमात्मा को समान रूप से देखता है वह अपने मन के द्वारा अपने आप को कभी नष्ट नहीं करता है, इस प्रकार वह मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है। इसलिए उसने अपना जन्म लिया है। गीत प्राप्त करने वाला गाना नाच रहा है और गाने हैं—-
पायो जी, राम रतन धन पायो…
आइटम दुश्मनी आपके सतगुरु, किरपाई करयोयो
जनम जनम की पूंजी
खरचै नखुट, चोर न लुटै, दिन दिन सवायो
सत की नाव, खेवटिया सतगुरु, भवसागर तर आयो
मीरा के गिरिधर नागर हरख प्रभु गौ
श्री आयुस्व आरोग्य कल्याणमस्त ——–
जय श्री कृष्ण———-
– आरएन तिवारी
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