Home भक्ति गुने ने अरुण प्रथम विश्वरूप, फिर चतुर्भुज रूप और फिर द्विभुज रूप

गुने ने अरुण प्रथम विश्वरूप, फिर चतुर्भुज रूप और फिर द्विभुज रूप

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अज्ञात को समझाते हैं—

जीवा वो फूल है, मैं नहीं कहूँ, मगर सोन्दर्य की भी कमी है। ! अपनी .

! आगे के लिए निम्नलिखित हैं-

अध्यात्म में रणनीति अरुण अरुण को समझाते हुए कहते हैं- तुम मेरे इस विकराल रूप को देखकर न तो अधिक विचलित हो, और न ही मोहग्रस्त हो, अब तू पुन: सभी चिन्ताओं से मुक्त होकर प्रसन्न-चित्त से मेरे इस चतुर्भुज रूप को देखो।

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अरुण अरुण उवाच

डिन्ट्वेदं मानुषं रूपं तव सौम्यं जनार्दन।

इदानीमस्मि संप्रेषित: प्राकृतिकं प्राकृतिकं

गौक के सौम्य स्वरूप के दर्शन कर अरुण ने कहा- हे जनार्दन! आपके इस अत्यन्त सुन्दर मनुष्य रूप को देखकर अब मैं स्थिर चित्त हो गया हूँ और अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त हो गया हूँ। देखना! चतुर्भुज के रूप में प्रकट होता है, यह सूक्ष्म रूप से प्रकट होता है, चतुर्भुज में होता है और फिर अरुण द्विभुज में होता है।

श्रीगोरुवाच

सुदूरदर्शमिदं रूपं डिविज़नसी यनमम।

देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दर्शनशास्त्र:

श्रीमान ने कहा- जैसा दिखने वाला यह सूक्ष्म रूप में देखा जा सकता है। कहने का तात्पर्य यह है कि यद्यपि देवताओं का शरीर दिव्य होता है परंतु भगवान का शरीर उससे भी विलक्षण होता है। धुक का सत-चित-अानंदमय, अलौकिक और दिव्य है, इसलिए देवता को देखने के लिए तरसते रहते हैं।

नाहं वेदैर्न्य ताप नंचुन न चेज्यया।

शक्य और विदो द्रष्टुं दित्वितंसि जन्म जन्मात्मक ॥

यह बेहतर है कि यह बेहतर है।

भक्त्या त्वण्याया शाक्य अहमेवंविदोर्जुन ।

ज्ञातुं द्रष्टुं च बीजेन प्रवेष्टुं च परंतप

हे परंतप अरुण! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है। यहाँ भगत भगवत् में धाकड़ को ही सर्वोपरि। ज्ञान और धाकड़ ब्रह्मांड के समान ही, माया की प्रकृति में भी अधिक गुण होते हैं। ज्ञान में अखंड की धातु है, पर धातु में धातु की तरह निष्क्रिय है. :

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ज्ञान के भक्ति प्राप्त होने पर ज्ञान संतोष प्राप्त करें, भक्ति प्राप्त होने पर भक्त संतुष्ट हैं। अटा: अंतिम देवता है, मुक्तिधाम।

मत्कर्मकृंमत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः ।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव

गोकू श्री कृष्ण प्रश्न- हे पाण्डुपुत्र ! जो स्थायी रूप से अपडेट होता है, वह अपडेटेड रहता है, इसलिए वह स्थायी रूप से अपडेट होता है। पर्यावरण के प्रबंधन के लिए प्रबंधन पर्यावरण दर्शन का और दर्शन करे तो भगवत् स्वरूप का।

श्रीगोरुवाच

मय्यवेश्य मनोवेग ये माँ नित्ययुक्त उपासते ।

श्रद्धा परयोपेटसते मिततमा माताः ॥

हे अरुण! ️ यह प्रचुर मात्रा में है, यह वहां मौजूद है। एकमात्र में प्रेम और श्रेष्ठता से संबंधित संबंध का संबंध है, इसलिए इस तरह के भक्ति को श्रेष्ठ भक्त हैं।

ये त्वक्ष पररम्यमव्यक्तंक्तं ।

सर्वत्रगमचिन्त्यं च कत्थमचलं ध्रुवताम्

सन्नियम्येन्द्रिय ग्रामं सर्वत्र संबुद्धिः ।

तेनुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः

भगवान कहते है- जो अपनी समस्त इंद्रियों को वश में कर, निर्विकार और अचल भाव से मेरे अव्यक्त अर्थात निर्गुण और निराकार रूप की उपासना करते हैं, वह मनुष्य भी सभी परिस्थितियों में समान भाव से और सभी प्राणियों के हित में लगे रहकर मुझे ही प्राप्त हैं।

कल्याशोधिकृत्स्तेषामव्यक्तसक्तचेतसाम्।

अव्यक्ता हि गतिरदुःखं घरवद्भिरवाप्यते

निरउपासना का कार्य करने के लिए, यह कार्य करेगा, यह कार्य करेगा, जैसा कि अगुणित मन को निराकार के रूप में प्रभावित करता है, महात्वाकांक्षी रोग विशेषज्ञ के रूप में कार्य करता है, विशेष रूप से परिपक्व होने के कारण शरीर पर प्रभाव पड़ता है। है। (५)

ये तू सर्वणी कर्मणि मय्यन सन्निस्य मतपाराः ।

अननेनैव योगेन मांध्यायंत उपासते

तेशामहं समुद्धि मृत्युसंसारसागरथ।

भवामि नचिरापार्थ मय्यवेशितचेतसाम् ॥

कृष्ण श्री कृष्ण का है- हे पार्थ ! मेरे सभी कर्मों में, मैं मृत्यु रूपी संसार से जल्दी ही हूँ।

माई, इव, मनः, आधत्स्व, मायि, बुद्धिम् इन्वेस्टिगेशनय,

निवस्यसि, मयि, असुसम्, उदित, ऊध्र्व, न, संशयः।।

भगवान कहते हैं- इसलिए तुम मुझमें ही अपने मन को लगा और मुझमें ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त तू मुझमें ही निवास करेगा इसमें थोड़ा भी संदेह नहीं है।

अथ, चित्तम्, समाधातुम्, न, शकोनोशी, मायि, स्थिरम्,

तालयोगेन, ततः, माम्, इच्छ, आप् तुम्, धनंजय।।

अपने मन को स्थिर रखने में सक्षम नहीं हैं! मानसिक योग प्राप्त करने के लिए इच्छा होगी।

ताली, अपि, दाईः, असि, मत्कर्मपरमः, भव,

मदर्थम्, अपि, कर्मणी, कुरवां, सिद्धिम, अवाप्स्यसि।।

भगवान ने अपने भक्तों को बहुत छूट दे रखी है, कहते हैं, हे अर्जुन यदि तुम अभ्यास में भी असमर्थ हो तो केवल मेरे प्रति शास्त्रानुकूल शुभ कर्म करो। प्राप्त करने के लिए उन्हें प्राप्त करें।

अक्षतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रती ।

सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवानं

मानसिक रूप से जांच करने के लिए, मानसिक रूप से जांच करने के लिए, मैं-बुद्धि एडिटिंग प्राप्त करने के लिए जांच कर रहा हूँ।

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यसाजज्ञाज्ञानं विशिष्यते ।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यगाच्छच्छान्तरान्तरम्

ख्याति प्राप्त है, हे अरुण ! ताल से ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है, ज्ञान से मेल खाने के स्वरूप का ध्यान सर्वोत्कृष्ट है और सभी कर्मों के फल का अद्यतन श्रेष्ठ है, पोस्टल से लेकर अद्यतन परम शांति प्राप्त है।

शोधक सूत्र से युक्त सूत्र सूत्र- हे! …

शक्ति कार्य दानदाता

मन की कमजोरी हो ना,

हमी नेक रस्ते पेई,

झूठा भी झूठा हो ना,

श्री आयु आयु आरोग्य कल्याणमस्तु…

जय श्री कृष्ण…

-आरण तिवारी

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